कवि बिल्हण और उनका विक्रमाङ्कदेवचरितम्

संस्कृत साहित्य में कवि बिल्हण ही एक ऐसे कवि हैं, जिनका जीवनचरित और काल प्रकाशित है। बिल्हण संस्कृत साहित्य के उन चुने हुए महाकवियों में हैं, जिन्होंने अपने समकालीन वातावरण और देशकाल का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करके अपने जीवन की घटनाओं और अपनी वंश-परम्परा का भी विवरण प्रस्तुत किया है।

विक्रमाङ्कदेवचरितम् महाकाव्य के १८ वें सर्ग में कवि (७० से १०४ श्लोक तक) ने अपना जीवन चरित लिखा है। श्रीनगर (प्रवरपुर) से ढाई कोस पर खोनमुष (आजकल खुन् मोह) गाँव में इनका जन्म हुआ। इनके पिता का नाम ज्येष्ठकलश तथा माता का नाम नागादेवी था। इनके पिता व्याकरण के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनके बड़े भाई का नाम इष्टराम और छोटे भाई का नाम आनन्द था। काश्मीर में रह कर इन्होंने वेदों और शास्त्रों का यथावत् अध्ययन किया। ईस्वीय सन् १०६२ से १०६५ के बीच में ये काश्मीर से बाहर यात्रा के लिए निकल पड़े ।

यमुना के किनारे-किनारे ये पहले मथुरा गए और वहां के पण्डितों को शास्त्रार्थ में हरा कर वृन्दावन में कुछ दिन बिताए। वहां से कन्नौज और प्रयाग होते हुए ये काशी आए। काशी में उस समय डालदेश के अधिपति हैहयवंशीय महाराज कर्ण की छोटी राजधानी थी। यहां पर कविराज का परिचय राजा से हुआ और यहीं पर इन्होंने प्रसिद्ध कवि गङ्गाधर को शास्त्रार्थ में हराया। यहां से वे अयोध्या गए । सम्भवतः अयोध्या में रह कर इन्होंने भगवान् राम की स्तुति में किसी काव्य की रचना भी की, जो उपलब्ध नहीं है।

कर्णराज के बाद बिल्हण भोजराज की राजधानी धारा भी गए। परन्तु इनके वहां जाने के पहले ही १०५५ ई० में भोजराज परलोक सिधार गए थे। वहां से कवि ने गुर्जरदेश की यात्रा की। परन्तु वहां पर उनका मन नहीं लगा और वे सोमनाथ का दर्शन करते हुए दक्षिण भारत का भ्रमण करने के लिए निकल पड़े।

रामेश्वरम् तक जाकर वे पुनः कल्याण नगर लौट आए और अपना शेष जीवन चालुक्य राजा विक्रमादित्य के दरबार में बिताया। इसी दरबार में इन्हें विद्यापति की पदवी प्रदान की गई। डा० बुहलर के अनुसार इन्होंने अपनी वृद्धावस्था में १०८५ ई० के आसपास विक्रमाङ्कदेवचरित महाकाव्य की रचना की होगी। इन्होंने कर्णसुन्दरी नाटक और चौरपञ्चाशिका नामक दो अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है।

ये स्वभाव से अभिमानी मालूम पड़ते हैं। इनको काश्मीर के ऊपर इतना गर्व है कि इनके अनुसार काश्मीर के बाहर कविता होती ही नहीं। इनका अभिमानी स्वभाव विक्रम के दरबार में भी छिपा न रह सका। महाराज विक्रम से इनका अनबन हो गया। इसीलिए कुछ लोग यह कहते हैं कि विक्रमाङ्देवचरित काव्य में महाराज विक्रम के सम्पूर्ण जीवन का वर्णन नहीं लिखा गया। लेकिन यह मत राजतरंगिणी की उस युक्ति से विरूद्ध है, जिसके अनुसार हर्ष की आश्रयदानिता को सुनकर भी विद्यापति बिल्हण अत्यन्त सन्तुष्ट होने के कारण उसके पास नहीं गए। अतः अनुमान यह निकलता है कि विक्रम के साथ मनमुटाव हो जाने पर राजा ने इन्हें मना लिया होगा।

महाराज विक्रम

चालुक्य वंश की चार प्रसिद्ध शाखाएं हो चुकी हैं। महाराज विक्रम का सम्बन्ध कल्याण नगर की शाखा से है। इसी शाखा में ९७३ ई० में तैलप नामक बलशाली राजा हुए। उसके बाद सत्याश्रय और जयसिंह ने १०४२ ई० तक राज्य किया। जयसिंह के स्वर्गगत हो जाने पर उसके पुत्र आहवमल्लदेव ने १०४२ ई० से १०६८ ई० तक राज्य किया। इसने चोल, मालवा और डाहल देशों की विजय की और कल्याण नगरी को अपनी राजधानी बनाया ।

आहवमल्लदेव के तीन पुत्र हुए। ज्येष्ठ पुत्र का नाम सोमेश्वर और कनिष्ठ का नाम जयसिंह था। इन्हीं के द्वितीय पुत्र विक्रमदेव हुए। अपने पिता के जीवन काल में ही विक्रम ने कई लड़ाइयां लड़ीं और वीरता की धाक जमा दी। चोल के राजाधिराज प्रथम के १०४६ ई० के शिलालेख से मालूम होता है कि विक्रम ने युद्ध में अपने पिता का हाथ बटाया था। इसका यह अर्थ हुआ कि १०४६ ई० के पूर्व हुए युद्ध में विक्रम युवा हो चला था अतः उस समय उसकी बीस वर्ष की भी अवस्था यदि मान ली जाय तो विक्रम का जन्म १०२६ के आसपास सिद्ध होता है।

विक्रम के पिता ने इनकी वीरता और योग्यता से प्रभावित हो कर इन्हीं को युवराज बनाना चाहा परन्तु इन्होंने अपने बड़े भाई के रहते युवराज बनना स्वीकार नहीं किया। इसलिए सोमेश्वर हो युवराज हुए। परन्तु वस्तुतः राज्य का सारा काम काज विकम ही देखा करते थे। अपने पिता के जीवन काल में ही इन्होंने चोल देश की राजधानी काञ्ची को जोता, मालवा की विजय की और कामरूप तथा बंगाल तक धावा बोला। केरल देश पर भी इन्होंने अपनों विजय पताका फहराई । जब ये चोल देश के गाङ्गकुण्ड और चक्रकोट नगर की विजय करके लौट रहे थे तब रास्ते में इनके पिता की मृत्यु का समाचार मिला। ये बिचारे दुखित होकर अपनी राजधानी गए। वहां पर अपने बड़े भाई सोमेश्वर के साथ कुछ दिन व्यतीत किए । परन्तु स्वभाव से सोमेश्वर उग्र और दुर्विनीत निकल गया जिससे सर्वदा उसका याद करने वाले विक्रम की भी नहीं पट सकी और वह अपने छोटे भाई तथा अन्य साथियों को लेकर कल्याण से चल पड़ा। इसके भाई ने इसके पीछे सेना भेजी परन्तु इसने भाई की सेना का विध्वंस कर डाला। इसने तुङ्गभद्रा नदी के किनारे डेरा डाला और यहां से ही अन्य राजाओं की विजय प्रारम्भ की और उनसे कर लेने लगा। चोल के राजा ने विक्रम से सन्धि करली और अपनी कन्या का विवाह विक्रम से कर दिया। विवाह के बाद इसके श्वशुर को मृत्यु हो गई और उसकी राजधानी काञ्ची में विप्लव हो गया। विक्रम ने सारे उपद्रव को दबा कर अपने साले को राजा बनाया । परन्तु उसका साला राज्य पर बैठते ही मर गया और काथो में दवा विद्रोह पुनः भड़क उठा । राजिग नामक बेंगिदेश के राजा ने चोलराज्य पर अधिकार कर लिया। इस समाचार को सुन कर विक्रम ने राजिग पर चढ़ाई के लिए प्रस्थान किया। इसी समय भाई से बदला लेने का अच्छा अवसर समझ कर सोमेश्वर ने विक्रम पर पीछे से आक्रमण कर दिया। भाई के साथ युद्ध करने को वह बुरा मानता था और दूत भेज कर उसने उसे समझाया भी, परन्तु कुछ फल न निकला। अन्त में इसे युद्ध करना ही पड़ा। विजय विक्रम को हुई। राजिग तो भाग कर लुप्त हो गया परन्तु सोमेश्वर पकड़ लिया गया और बन्दी बना लिया गया। अब विक्रम ही कल्याण नगरी में शासन करने लगा। विक्रम ने अपने भाई से २५ दिसम्बर १०७५ से ३० जून १०७६ के बीच में राज्य जीता। कुछ लोगों के अनुसार विक्रम ने कराड़ देश की राजकुमारी चन्द्रलेखा को स्वयंवर में जीता और उसे अपनी पटरानी बनाया। अन्य लोगों के मत से उसने स्वयंवर न करके विवाह किया था और यह विवाह वस्तुतः विक्रम के राज्यारोहण के पहले ही सम्पन्न हो चुका था।

राज्यारोहण के कुछ समय बाद विक्रम के छोटे भाई जयसिंह ने जो वनवास मण्डल का शासन करता था, लम्बी सेना इकट्ठी करके विक्रम पर चढ़ाई कर दो। विक्रम ने उसे समझाया बुझाया परन्तु फल न निकला। अन्त में युद्ध हुआ और जयसिंह पकड़ कर राजा के सामने लाया गया। विक्रम ने उसे कड़ी डांट फटकार सुनाई। इसके शासन काल में चोल लोगों ने एक बार पुनः अपना सिर उठाया परन्तु अबकी बार विक्रम ने चोल का अच्छी प्रकार दमन कर दिया और उनकी राजधानी काञ्ची को अपने कब्जे में कर लिया। इसने ११२७ ई० तक राज्य किया। इसके दो पुत्र (जयकर्ण, सोमेश्वर) और एक कन्या (मैललमहादेवी) हुई ।

विक्रम वस्तुतः प्रतापी राजा था। उसने विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो दक्षिण में तुङ्गभद्रा नदी से लेकर उत्तर में नर्मदा तक फैला था। उसने लोक कल्याण के लिए अनेक सराह‌नीय कार्य किए। कवियों और विद्वानों का वह बड़ा भारी आश्रयदाता था क्योंकि काश्मीर जैसे दूर देश से आ कर बिल्हण उसके दरबार में आदर पा रहे थे। इसने शक संवत् के स्थान पर सन् १०७७ में चालुक्य संवत् की स्थापना की परन्तु वह सम्वत् अधिक दिनों तक चल न सका ।

विक्रमाङ्कदेवचरितम् महाकाव्यम्

महाकवि बिल्हण ने अपने आश्रयदाता विक्रम के यश का वर्णन करने के लिए विक्रमाङ्कदेवचरित नामक महाकाव्य की रचना की। संस्कृत साहित्य में चरित काव्यों की भी एक सुन्दर परम्परा रही है। आदिकवि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम रामायण में रामचरित्र का पावन वर्णन किया। महाकवि कालिदास ने भी 'रघुवंश' के राजाओं का चरित्र वर्णन अपने काव्य में किया। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो कथा के भेद से चरित काव्यों के दो विभाग हो सकते हैं। पहले प्रकार के चरित काव्यों में नायक पौराणिक कथाओं से लिया जाता है और पुराण की परम्परा में आए हुए उसके कार्यों का कवि अपने काव्य में गुम्फन करता है। दूसरे प्रकार की परम्परा में वे चरित काव्य आते हैं जिनका चरितनायक पुराण प्रसिद्ध पुरुष या वंश न होकर कविकालिक या उससे पूर्व का इतिहास प्रसिद्ध पुरुष या वंश होता है। विक्रमाङ्कदेवचरित महाकाव्य दूसरे प्रकार के काव्यों का प्रतिनिधित्व करता है।

यह काव्य सरस वैदर्भी रीति में लिखा गया है। कवि ने अपने काव्य में स्वयं वैदर्भी रीति की प्रशंसा की है (१.९०) । वैदर्भी रीति सरस कोमल कान्त पदावली के लिए प्रसिद्ध है। इस रीति के काव्य दुरूह न होकर सरल किन्तु रस सिद्ध और ध्वनि मर्म से भरे होते हैं। छोटे पदों में बड़े भाव भरे जाते हैं। महाकवि बिल्हण ने इस तत्त्व को अपने काव्य में बड़ी कुशलता के साथ सजाया है। अनुप्रास की छटा और सरस सरल श्लेष की माधुरी से काव्य भरा है। अन्य अलङ्कार भी उचित मात्रा में उचित स्थान पर जड़े गए हैं।

कवि दूर की सूझ वाला है। इसके वर्णन मनोहारी होते हैं। ऋतुवर्णन में तो यह अपनी सानी नहीं रखता। एक उदाहरण देखिये-

कृतक्षणं क्षुद्रनदीसमागमे तरङ्गिणीनाथमवेक्ष्य संप्रति ।

विलङ्घ्य मार्गं सहसा महापगाः पतन्ति नीचेषु नदान्तरेष्वपि ।। (१३.४१.)

 

वर्षा का समय है। छोटी-छोटी नदियां भी उमड़ कर उतावली हो समुद्र से मिलने के लिए दौड़ पड़ी हैं। समुद्र भी उन क्षुद्र नदियों के साथ क्रीडा करता हुआ आनन्द ले रहा हैं। महानदियां समुद्र के इस व्यवहार को न सह सकीं और उसकी प्रतिस्पर्धा करती हुए वे भी नीच नद में जाकर मिल रहीं हैं। समुद्र जब नीच नदियों के साथ आनन्द करने में न सकुचाता हुआ मर्यादाहीन हो रहा है तो फिर नदियां क्यों न अपनी मर्यादा छोड़ कर नीच नदों के साथ क्रीड़ा करें? वर्षा में नदियों की अमर्यादिता का इससे सुन्दर आलंकारिक वर्णन क्या हो सकता है।

कवि ने अपना महाकाव्य बिलकुल शास्त्रीयपरम्परा में लिखा है। दण्डी आदि आचार्यों ने महाकाव्य के जो लक्षण बतलाए है, यह महाकाव्य उन सभी गुणों को ग्रहण करता है। इसी लिए इस महाकाव्य का इतिहासत्व दब गया है और काव्यपक्ष ही प्रधान रह सका है। अपने नायक को मानवसुलभ कमजोरियों और दुर्गुणों से दूर करके कवि ने उदात्त गुणों को भूमि पर ला बिठाया है।

यही कारण है कि बहुत कुछ काल्पनिक बातें कवि को लानी पड़ी हैं। अपने बड़े भाई के साथ राज्य की लालसा से युद्ध करने में कवि ने भगवान शंकर के आदेश को कारण बताया। इसी प्रकार इतिहास सिद्ध बात यह है कि विक्रम अपने बड़े भाई सोमेश्वर के राज्य पा लेने पर भीतर भीतर राज्य को उलट देने का कुचक करने लगा था और यह बात खुल जाने पर उसके भाई ने उसे राज्य से निकाल दिया था। कवि ने इस तथ्य को छिपा कर विक्रम का स्वतः ही राज्य छोड़ कर चला जाना लिखा है। इसी तरह स्थान स्थान पर कवि ने विक्रम के द्वारा चोलों पर विजय दिखलाई है परन्तु चोल लोग सर्वदा काञ्ची पर शासन करते ही रहे। काञ्ची कभी भी विक्रम के वश में पूर्णतः नहीं आई। राजिग ने जब विक्रम के साले को मार कर चोलसिंहासन पर अपना अधिकार जमा लिया तब विक्रम ने उससे युद्ध किया और कवि कहता है कि राजिग न जाने कहां भाग गया। वस्तुतः इतिहास से तो यह सिद्ध होता है कि राजिग और कोई नहीं बल्कि इतिहास प्रसिद्ध राजेन्द्र चोल ही था और युद्ध में वह भागा नहीं अपितु सर्वदा काञ्ची पर राज्य करता रहा। इसी प्रकार अन्य कई स्थल ऐसे मिलते हैं जो इतिहास के विरोध में रखे जा सकते हैं। परन्तु कवि इतिहास को ही प्रधान न मान कर अपनी कल्पना की उड़ान भरता हुआ नैसगिक काव्य प्रस्तुत कर रहा या न कि इतिहास । काव्य में इतिहास आ जाय तो यह शोभा देता है लेकिन कवि कभी भी इतिहास में काव्य नहीं ढूंढ़ता ।

इस काव्य की एक विशेषता और ध्यान देने योग्य है। यह काव्य एक बड़ी भूमिका के साथ प्रारम्भ होता है। इस भूमिका में पहले तो काव्यमय भाषा में देवताओं और देवियों की स्तुति की गई है। बाद में कवि कर्म की प्रशंसा, खलों और दुष्टों की निन्दा तथा काव्यचोरों का उपहास किया गया है। काव्य की शैली का निर्देश, अपनी विद्वत्ता तथा अपने मुंह अपनी कृति की बड़ाई भी मिलती है। अन्य काव्यों में इस प्रकार की भूमिका का प्रायः अभाव ही है। यह कवि की अपनी विशेषता है।

साहित्यपाथोनिधिमन्थनोत्थं

कर्णामृतं रक्षत हे कवीन्द्राः ! ।

यदस्य दैत्या इव लुण्ठनाय

काव्यार्थचौराः प्रगुणीभवन्ति ॥ ११ ॥

हे कवीन्द्रजन ! साहित्यरूपी समुद्र के मन्थन से निकले हुए कानों को अमृत लगने वाले काव्य की आप लोग रक्षा करें। क्योंकि दैत्यों के समान इस अमृत को चुराने के लिए भी शब्द और अर्थ के चोर आजकल बहुत बलवान् हो रहे हैं ।॥ ११ ॥

गृह्णन्तु सर्वे यदि वा यथेष्टं

नास्ति क्षतिः कापि कवीश्वराणाम् ।

रत्नेषु लुप्तेषु बहुष्वमत्यै-

रद्यापि रत्नाकर एव सिन्धुः ॥ १२ ॥

अथवा अपनी इच्छा भर सभी लोग काव्यामृत का ग्रहण करें । इसमें कवीन्द्रों की कोई क्षति नहीं है, क्योंकि देवताओं ने अनेक रत्न समुद्र से निकाल लिए फिर भी समुद्र तो रत्नाकर ही कहा जाता है ॥ १२ ॥

सहस्रशः सन्तु विशारदानां

वैदर्भलीलानिधयः प्रबन्धाः ।

तथापि वैचित्र्यरहस्यलुब्धाः

श्रद्धां विधास्यन्ति सचेतसोऽत्र ।।१३।।

विद्वानों द्वारा विरचित वैदर्भीरीति से गुम्फित काव्य हजारों हों फिर भी जो सहृदय- जन वैचित्र्य के रहस्य से मुग्ध हो जाते हैं वे तो इस काव्य में श्रद्धा रखेंगे ही ॥ १३ ॥ 

इस महाकाव्य के प्रथम सर्ग में उपजाति छन्द का प्रयोग किया गया है। जिस छन्द के पूर्वार्ध में उपेन्द्रवज्रा छन्द तथा उत्तरार्द्ध में इन्द्रवज्रा छन्द हो उसे उपजाति छन्द कहा जाता है ।

उपेन्द्रवज्रा का लक्षण- 'उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ'

इन्द्रवज्रा का लक्षण- 'स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ ज गौ गः'

उपजाति का लक्षण- 'अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।'

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श्रममाहात्म्यम्

 श्रममाहात्म्यम्

गोधान्य धनदानानि प्रशस्यान्यपि सर्वथा ।

शरीरश्रमदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १ ॥

शमिनो दमिनस्तद्वद्यागिनो योगिनोऽपि वा !

तेऽजस्त्रं श्रमिणः क्षेत्रे तुलां नार्हन्ति कर्हिचित् ॥ २॥

प्रश्राम्यन् पङ्किले क्षेत्रे पङ्कलिप्ततनुर्हि यः ।

स वन्द्योऽश्रमिणः साधोर्भस्माङ्किततनोरपि ॥ ३ ॥

श्रमिणो व्रणचिह्नानि क्षेत्रेऽरण्ये रणेऽथवा ।

तानि प्रवालमालाभ्यो रोचिष्मन्ति विभान्ति मे ॥ ४ ॥

स्वश्रमोपार्जितं ह्यन्नं तन्नूनं परमामृतम् ।

न तत् क्षीराब्धिसम्भूतं न वा यज्ञहुतं हविः ॥ ५ ॥

श्राम्यन्ति गृहिणो यत्र सर्वेऽपि सततं गृहे ।

स्वच्छता सुव्यवस्था च राजते तत्र देवता ॥ ६ ॥

न तद् बिभर्ति पावित्र्यं गाङ्गं वा यामुनं जलम् ।

कृषीवलस्य तप्तस्य कायोत्थं श्रमवारि यत् ॥ ७ ॥

यदाज्याहुतिभिः पुण्यं दीर्घसत्रेष्ववाप्यते ।

नूनं शतगुणं तस्मात् क्षेत्रेषु जलसिञ्चनैः ॥ ८ ॥

श्राम्यन्तः खलु यज्वानः श्राम्यन्तः खलु योगिनः ।

श्राम्यन्त एव दातारः श्रीमन्तो न कथञ्चन ॥ ९ ॥

श्रीमन्तः श्रमवन्तश्च नैव तुल्याः कदाचन ।

भान्ति रत्नोपलैरेके श्रमवारिकणैः परे ॥ १० ॥

श्रीमतां श्रमहीनानां भारात् खिन्नां वसुन्धराम् ।

प्रीणयन्ति स्वकौशल्यैः श्राम्यन्तः कारुशिल्पिनः ॥ ११ ॥

जयन्ति ते कलावन्तः सन्ततश्रमनैष्ठिकाः ।

येषामद्भुतनिर्माणैर्जगदेतदलङ्कृतम् ॥ १२ ॥

धिग् धिक् तं मांसलं देहं रूपयौवनशालिनः ।

यो न धत्ते श्रमाभावाद् गात्रस्नायुकठोरताम् ॥ १३ ॥

न मुक्तासु न हीरेषु तत्तेजः खलु राजते ।

शिल्पिनः श्रमतप्तस्य स्वेदाम्बुकणिकासु यत् ॥ १४ ॥

मांसलोऽपि हि कायोऽसौ नूनं पाषाणनिर्मितः ।

न यः परिश्रमैरेति प्रस्विन्नाखिलगात्रताम् ॥ १५ ॥

प्रियं पद्मादपीशस्य नीहारकणिकाचितात् ।

मुखं स्वेदाम्बुस‌ङ्क्लिन्नं शिल्पिनः श्रमजीविनः ॥ १६ ॥

अधनेनापि जीयन्ते श्रमिणा धनसम्पदः ।

सधनेन तु हीयन्तेऽश्रमिणा कुलसम्पदः ॥ १७ ॥

पदवाक्यमयी वाणी जिह्वयैव निगीर्यते ।

सा तु श्रममयी वाणी सर्वैरङ्गैरुदीर्यते ॥ १८ ॥

श्रमेण दुःखं यत्किञ्चित् कार्यकालेऽनुभूयते ।

कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रमोदायैव कल्पते ॥ १९ ॥

पुष्पिण्यौ श्रमिणो जङ्घे गतिर्धीरोद्धता तथा ।

व्यूढं वक्षो दृढावंसौ वपुरारोग्यमन्दिरम् ॥ २० ॥

श्राम्यतः शुभकार्येषु जागरूकतयाऽनिशम् ।

श्रमश्रान्तानि नियतं दैन्यानि खलु शेरते ॥ २१ ॥

ज्ञानभक्तिविहीनोऽपि यः श्राम्यति सुकर्मसु ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥ २२ ॥

(१९७७)

श्रमयोगः

योगिनामपि सर्वेषां पूजनीयो हि सर्वथा ।

एकाकी प्रतपन् श्रेत्रे श्रमयोगी कृषीवलः ॥ १ ॥

श्रमयोगी महायोगी श्रमिको धार्मिको महान् ।

श्रमाचारी ब्रह्मचारी श्रमशीलो हि शीलवान् ॥ २ ॥

श्राम्यन्तोऽविरत लोके श्रेयांसो वृषभा हि ते ।

अलसाः किन्तु न श्लाध्याः सिंहा गह्वरशायिनः ॥ ३ ॥

ब्रह्मर्षीणां कुले जातो भूदेवो नहि तत्त्वतः ।

अकुलीनोऽपि भूदेवो यो भुवं सम्प्रसेवते ॥ ४ ॥

पूजार्हो नरदेवानां भूदेवानाञ्च सर्वथा ।

श्रमदेवो महात्माऽसौ निशि जाग्रन् दिवा तपन् ॥ ५ ॥

भूदेवानां नृदेवानां देवानां स्वर्गिणामपि ।

श्रमदेवो हि पूजार्हः प्राणिनां वृषभो यथा ॥ ६ ॥

वृषो हि भगवान् धर्मो मुनीनामपि सम्मतः ।

परिश्राम्यत्यविश्रान्तं यदसौ लोकहेतवे ॥ ७ ॥

शोचनीयो यथा लोके पतितो निर्धनो जडः ।

श्रमात् पराजितो नूनं शोचनीयतरस्ततः ॥ ८ ॥

कृशोत्साहः कृशबलः कृशकर्मा कृशश्रमः ।

स एव हि कृशो नूनं न शरीरकृशः कृशः ॥ ९ ॥

ये शास्त्रपण्डिता लोके येऽथवा शस्त्रपण्डिताः ।

श्रमिकैरेव पाल्यन्ते देवैराराधका इव ॥ १० ॥

श्रमिकं निर्धनञ्चापि भूदेवा भूभृतस्तथा ।

वणिजोऽप्युपजीवन्ति श्रमिको जीवनप्रदः ॥ ११॥

(१९७७)

लेखकः- श्रीधरभास्करवर्णेकरः

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संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग-13)

 तदेव गगनं सैव धरा

 तदेव गगनं सैव धरा

जीवनगतिरनुदिनमपरा

तदेव गगनं सैव धरा।।

पापपुण्यविधुरा धरणीयं

कर्मफलं भवतादरणीयम्।

नैतद्-वचोऽधुना रमणीयं

तथापि सदसद्-विवेचनीयम्।।

मतिरतिविकला

सीदति विफला

सकला परम्परा। तदेव....

शास्त्रगता परिभाषाऽधीता

गीतामृतकणिकापि निपीता ।

को जानीते तथापि भीता

केन हेतुना विलपति सीता ।।

सुतरां शिथिला

सहते मिथिला

परिकम्पितान्तरा । तदेव.......

 जनताकृतिः शान्तिसुखहीना

संस्कृति-दशाऽतिमलिना दीना।

केवल-निजहित-साधनलीना

राजनीतिरचना स्वाधीना ।।

न तुलसीदलं

न गङ्गाजलं

स्वदते यथा सुरा । तदेव.....

देवालयपूजा भवदीया

कथं भाविनी प्रशंसनीया।

धर्म-धारणा यदि परकीया

नैव रोचते यथा स्वकीया।।

भक्तिसाधनं

न वृन्दावनं

काशी वा मथुरा। तदेव..

 

स्पृहयति धनं स्वयं जामाता

परिणय-रीतिराविला जाता।

सुता न परिणीतेति विधाता

वृथा निन्द्यते रोदिति माता ॥

चरणवन्दनं

भीतिबन्धनं

मोहमयी मदिरा । तदेव ...

सपदि समाजदशा विपरीता

परम्परा व्यथते ननु भीता ।

अपरिचिता नूतननैतिकता

शनैः शनैः प्रतिगृहमापतिता ।।

त्यज चिरन्तनं

हृदयमन्थनं

गतिरपि नास्त्यपरा । तदेव....

 

भारतीयसंस्कृतिमञ्जूषा

प्रतिनवयुग-संस्कार-विभूषा ।

स्वर-परिवर्तन-कृताभिलाषा

सम्प्रति लोक-मनोरथभाषा ।

नवयुगोचिता

मनुज-संहिता

विलसतु रुचिरतरा । तदेव......

लेखकः – श्रीनिवास रथ

हिन्दी

वही आकाश वही धरती

गति जीवन की नित नयी बदलती, है वही आकाश वही धरती ।

पाप पुण्य का भार धरा पर कर्म के अनुरूप मिलता फल, माना, अब ये बातें नहीं सुहाती फिर भी भले बुरे का तो कुछ करना होगा कही विवेचन । चकराने लगता है माथा समूची परम्परा लगती विफल सिसकती । है वही...

शास्त्रों वाली परिभाषायें पढ़ ली, पी गये अमृत बिन्दु सम वचनों वाली गीता, फिर भी किसे पता है ? किस कारण डरी डरी रोती है सीता ?

इसीलिए बेहाल कापते अन्तर से है मिथिला सब सहती । है वही..

सुख शान्ति से है दूर जनता, केवल अपने ही हित साधन में लीन राजनीति के हर करतब को मिल गयी स्वाधीनता ।

न तुलसी दल न गंगा जल में कहीं वह स्वाद या वह भावना दिखती, कि जितनी मन भावन रसीली अब सुरा लगती । है वही..

आपके मन्दिर की, पूजा की प्रशंसा कौन करेगा ? कैसी ! अगर परायी धर्म-धारणा नयी सुहाती खुद अपनी ही पूजा जैसी ।

वृन्दावन नहीं भक्ति का साधन न काशी या मथुरा भक्ति भक्त के मन में बसती । है वही......

जमाई राज अब खुद हो कर चाहने लगा वधू से बढ़ कर धन, हुए व्याह के तौर तरीके दूषित, भाग्य को बेकार कोसती माता 

है दिन रात रोती चरण वन्दन ये डरावने बन्धन एक मदिरा है भरम भरती । है वही......

दशा समाज की फिलहाल है विपरीत दुखी है परम्परा भयभीत । हर घर आँगन में उतर रही है धीरे धीरे एक नयी नैतिकता अपरिचित । 

छोड़ो चिरन्तन हृदय-मन्थन गति भी कोई और नही दिखती । है वही...

भारतीय संस्कृति की मंजूषा सक्षम है करने में नवयुग के संस्कार अलंकृत । स्वर परिवर्तन की अभिलाषा व्यक्त कर रही सम्प्रति जन मानस की भाषा ।

सुरुचिपूर्ण अति सुन्दर नयी संहिता मनुज जाति की अब निर्मित हो नव संयोजन करती। है वही...
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